मैंने आहुति बन कर देखा | अज्ञेय

मैंने आहुति बन कर देखा मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ? मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ? मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ? या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ? पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ? नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ? मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने ! अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है- क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ? वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है ! मैं कहता हू...