कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5
कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5 जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में, कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही। किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं, पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था? हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये, पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को, जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था। और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का, (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था) और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया; सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह, जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के? कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही; जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती, जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर। त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर, त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं; याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं; या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का, जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर ग्लानिमय जीवन बहुत अच्...