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रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 2

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 2   'पूछो मेरी जाति , शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से' रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से, पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश, मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास। 'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे, क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे। अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान, अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।' कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो, साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो। राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज, अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।' कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया, सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया। बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान, उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान। 'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का, धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का? पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, 'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर। 'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया, अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया। ...

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1 | रामधारी सिंह दिनकर

 रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1 'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल, सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी। सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर। तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी। ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास। अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से, कठिन साधना में उद्योगी लगा...

युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं | अज्ञात

रात काली है भयंकर, दूर तक पसरा अँधेरा डस लिया है कृष्ण सर्पों ने, नहीं जीवित सवेरा  है मगर तू सूर्य इतना जान ले बस उग प्रखर सा भोर कर, ललकार के बस   अब समय है, पूर्ण कर जो स्वप्न तूने खुद बुने हैं  युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मृत्यु है निश्चित, अकेला तथ्य है यह  युद्ध में सब ही मरे हैं सत्य है यह  है मगर तू भीष्म इतना जान ले बस मृत्यु तेरी दास है यह मान ले बस  चुभ रहे जो तीर, चुभने दे- ये तूने खुद गिने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! यह जो जीवन है तेरा 'सागर का मंथन' है अनोखा  इसमें निकले रत्न हैं, अमृत है, विष है और धोखा है मगर तू शिव   सा इतना जान ले बस  अमर होकर क्या करेगा, छीनकर विषपान कर बस  कंठ तेरे है हलाहल, कंठ के "स्वर" रुनझुने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मानता हूँ तू अकेला है बहुत और थक चुका है पीठ में खंजर गड़े हैं, स्वेद-शोणित बह चुका है  है मगर तू वज्र की तलवार इतना जान ले बस जंग में ही, वज्र का है ज़ंग मिट...

कैकेई का अनुताप / मैथिलीशरण गुप्त

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  तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी। हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”। सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना। “हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी? मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी? पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा, रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा? तनु तड़प-तड़पकर तत्प तात ने त्यागा, क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?  हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा, निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा। अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका? संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका। मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा, हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?” प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा, रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा “उसके आशय की थाह मिलेगी किसको? जनकर जननी ही जान न पाई जिसको?”  “यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।” चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को। सबने रानी की ओर अचा...

आज लहरों में निमंत्रण / हरिवंश राय बच्चन

 तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता, शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें, इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में, है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - कंपन! तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण! विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है, शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है, इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके-- इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है, क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो? देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन? तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का, बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह, किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का, विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने, त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन। तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निम...

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है | हरिवंशराय बच्चन

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  कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है। हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबर-अवन...