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Product review

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Product Review Today on this blog I am going to post something other than literature. I recently had experience with purchasing kettles and trying them out so I am going to list best of affordable kettle under 1000 price tag. My preference will be 1st to last Best electric kettle under ₹1000 in India 1. AGARO Sonnet Electric Kettle, 1.5L -- ₹699 2.  Pigeon by Stovekraft Amaze Plus Electric Kettle 1.5L -- ₹549 Good gaming budget laptop with external graphics card under 50k rupees: Lenovo IdeaPad Gaming 3 Laptop AMD Ryzen 5 5500H Disclaimer:   इस पेज पर मै अपने द्वारा इस्तेमाल की हुई गैजेट्स का रिव्यु  डालता रहता हु. इनपे दिए गए लिंक से प्रोडक्ट खरीदने पर मुझे कुछ कमीशन मिल सकता है. 

रात आधी खींच कर मेरी हथेली | हरिवंशराय बच्चन

  रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी। तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी। मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा सा और अधसोया हुआ सा। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में। इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में। मैं लगा दूँ आग इस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर। जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने के लिए था कर दिया तैयार तुमने! रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। प्रात ही की ओर को है रात चलती औ उजाले में अंधेरा डूब जाता। मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी खूबियों के साथ परदे को उठाता। एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था और मैंने था उतारा एक चेहरा। वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने। और उतने फ़ासले पर आज तक सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम। फिर न आया वक्त वैसा फि...

सफलता खोज लूँगा | डॉ. अजय पाठक

  तुम मुझे दुख-दर्द की सारी विकलता सौंप देना, मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा! मैं सफ़र में चल पड़ा हूँ, दूर जाऊँगा समझ लो। व्यर्थ है आवाज़ देना, आ न पाऊँगा समझ लो। जोगियों से मन लगाना, छोड़ दो मुझको बुलाना। राह में दुश्वारियाँ हो. . . मैं सरलता खोज लूँगा, मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा! एक रचनाकार हूँ, निर्माण करने में लगा हूँ। मैं व्यथा का सोलहों- सिंगार करने में लगा हूँ। यह कठिन है काम लेकिन, श्रम अथक अविराम लेकिन। इस थकन में ही सृजन की मैं सबलता खोज लूँगा। मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा! फूल की पंखुड़ियों पर, चैन से तुम सो न पाए। जग तुम्हारा हो गया पर, तुम किसी के हो न पाए। तुम अधर की प्यास दे दो, या सुलगती आस दे दो। मैं हृदय की फाँस में अपनी तरलता खोज लूँगा, मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा! रात काली है मगर यह, और गहरी हो न जाए। फिर तुम्हारी चेतनायें, शून्य होकर खो न जाए। इसलिए मैं फिर खड़ा हूँ, स्याह रातों से लड़ा हूँ। मैं तिमिर में ही कहीं, सूरज निकलता खोज लूँगा। मैं घने अवसाद में अपनी सफलता खोज लूँगा!

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 2

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 2   'पूछो मेरी जाति , शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से' रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से, पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश, मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास। 'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे, क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे। अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान, अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।' कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो, साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो। राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज, अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।' कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया, सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया। बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान, उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान। 'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का, धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का? पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, 'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर। 'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया, अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया। ...

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1 | रामधारी सिंह दिनकर

 रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1 'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल, सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी। सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर। तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी। ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास। अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से, कठिन साधना में उद्योगी लगा...

युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं | अज्ञात

रात काली है भयंकर, दूर तक पसरा अँधेरा डस लिया है कृष्ण सर्पों ने, नहीं जीवित सवेरा  है मगर तू सूर्य इतना जान ले बस उग प्रखर सा भोर कर, ललकार के बस   अब समय है, पूर्ण कर जो स्वप्न तूने खुद बुने हैं  युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मृत्यु है निश्चित, अकेला तथ्य है यह  युद्ध में सब ही मरे हैं सत्य है यह  है मगर तू भीष्म इतना जान ले बस मृत्यु तेरी दास है यह मान ले बस  चुभ रहे जो तीर, चुभने दे- ये तूने खुद गिने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! यह जो जीवन है तेरा 'सागर का मंथन' है अनोखा  इसमें निकले रत्न हैं, अमृत है, विष है और धोखा है मगर तू शिव   सा इतना जान ले बस  अमर होकर क्या करेगा, छीनकर विषपान कर बस  कंठ तेरे है हलाहल, कंठ के "स्वर" रुनझुने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मानता हूँ तू अकेला है बहुत और थक चुका है पीठ में खंजर गड़े हैं, स्वेद-शोणित बह चुका है  है मगर तू वज्र की तलवार इतना जान ले बस जंग में ही, वज्र का है ज़ंग मिट...

कैकेई का अनुताप / मैथिलीशरण गुप्त

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  तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी। हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”। सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना। “हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी? मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी? पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा, रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा? तनु तड़प-तड़पकर तत्प तात ने त्यागा, क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?  हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा, निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा। अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका? संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका। मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा, हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?” प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा, रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा “उसके आशय की थाह मिलेगी किसको? जनकर जननी ही जान न पाई जिसको?”  “यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।” चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को। सबने रानी की ओर अचा...