कुरुक्षेत्र (सभी सर्ग ) | रामधारी सिंह दिनकर

कुरुक्षेत्र 




प्रथम सर्ग 




द्वितीय  सर्ग 






तृतीय सर्ग 






कुरुक्षत्र रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी रचनाओं में से एक है। इस काव्य में इन्होने महाभारत के भीषण युध के पश्चात के एक महत्वपूर्ण अध्याय का सरल हिंदी तुकांत भाषा में वर्णन किया है। युधिष्ठिर का पश्चाताप, भीष्म की सिख, युद्ध का कारणं , युद्ध का अंतिम परिणाम तथा मानव जीवन के कुछ अमूल्य रहस्यों को समझाते हुए दिनकर जी ने बहुत ही अद्भुत शब्द चयन के साथ इस  कविता की नीव राखी है। इनकी कुछ लाइन झझकोर देने वाली है जैसे

" बद्ध, विदलित और साधनहीन को
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो? "

 

युद्ध में मानव की विवशता को समझते हुए उन्होंने लिखा है की 



युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।

रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
आप इन सर्गो का एक क्रम से  अध्ययन करिये  कमेंट में जरूर बताइये की ये कविता कैसी लगी। 

 

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