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रात आधी खींचकर मेरी हथेली | हरिवंशराय बच्चन

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  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी, तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी, मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा, रात आधी खींच कर मेरी हथेली  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।   एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं, कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में, इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में, मैं लगा दूँ आग इस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,  जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने  के लिए था कर दिया तैयार तुमने!  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।  प्रात ही की ओर को है रात चलती औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता, मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी, खूबियों के साथ परदे को उठाता, एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था, और मैंने था उतारा एक चेहरा, वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर  ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से...

ऐसे मैं मन बहलाता हु | हरिवंश राय बच्चन

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ऐसे मैं मन बहलाता हूँ |  हरिवंश राय बच्चन सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! आह निकल मुख से जाती है, मानव की ही तो छाती है, लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! ~ ऐसे मैं मन बहलाता हूँ /  हरिवंश राय बच्चन हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ

कोशिश करने वालो की हार नही होती | हरिवंश राय बच्चन

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कोशिश करने वालो की हार नही होती| हरिवंश राय बच्चन लहरो  से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगों में साहस भरता है चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नही होती। हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ

जो बीत गयी सो बात गयी ( Jo beet gayi so baat gayi)

जो बीत गई सो बात गयी| हरिवंश राय बच्चन जो  बीत गई सो बात गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुम थे उसपर नित्य निछावर तुम वह सूख गया तो सूख गया मधुवन की छाती को देखो सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में मधु का प्याला था तुमने तन मन दे डाला था वह टूट गया तो टूट गया मदिरालय का आँगन देखो कितने प्याले हिल जाते हैं गिर मिट्टी में मिल जाते हैं जो गिरते हैं कब उठतें हैं पर बोलो टूटे प्यालों पर कब मदिरालय पछताता है जो बीत गई सो बात गई मृदु मिटटी के हैं बने हुए मधु घट फूटा ही करते हैं लघु जीवन लेकर आए हैं प्याले टूटा ही करते हैं फिर भी मदिरालय के अन्दर  मधु के घट हैं मधु प्याले हैं जो मादकता के मारे हैं वे मधु लूटा ही करते हैं वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट प्यालों पर जो ...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3 न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिलें, तो लड़ के, तेजस्वी छीनते समर को जीत, या कि खुद मरके। किसने कहा, पाप है समुचित सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ? उठा न्याय क खड्ग समर में अभय मारना-मरना ? क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई, धर्मराज, व्यंजित करते तुम मानव की कदराई। हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है ? देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है। मनःशक्ति प्यारी थी तुमको यदि पौरुष ज्वलन से, लोभ किया क्यों भरत-राज्य का? फिर आये क्यों वन से? पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी, केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा; पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ? तीन दिवस तक पन्थ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे, बैठे पढते रहे छन्द अनुनय...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2   तुम विषण्ण हो समझ हुआ जगदाह तुम्हारे कर से। सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अम्बर से? अथवा अकस्मात् मिट्टी से फूटी थी यह ज्वाला? या मंत्रों के बल जनमी थी यह शिखा कराला? कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या समर लगा था चलने? प्रतिहिंसा का दीप भयानक हृदय-हृदय में बलने? शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का जब वर्जन करती है, तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है। शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। ऐसी शान्ति राज्य करती है तन पर नहीं, हृदय पर, नर के ऊँचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर। न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जबतक न्याय न आता, जैसा भी हो, महल शान्ति का सुदृढ नहीं रह पाता। कृत्रिम शान्ति सशंक आप अपने से ही डरती है, खड्ग छोड़ विश्वास किसी का कभी नहीं करती है। और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था में सिख-भोग सुलभ है, उनके लिए शान्ति ही जीवन- सार, सिद्धि दुर्लभ है। पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पीकर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह समझो कुछ उनके मन का। सत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें, बोलो धर...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1 समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? सुख-समृद्धि क विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से, किसी क्षुधित क ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से। सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्रज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है, सत्ता सिमट-सिमट जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई? सुख का सम्यक्-रूप विभाजन जहाँ नीति से, नय से संभव नहीं; अशान्ति दबी हो जहाँ खड्ग के भय से, जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी, जहाँ सुत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी; नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के जहाँ न आदर पायें; जहाँ सत्य कहनेवालों के सीस उतारे जायें; जहाँ खड्ग-बल एकमात्र आधार बने शासन का; दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का; सहते-सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो; समझ कापुरुष अपने को धिक्कार रहा जन-जन हो; अहंकार के साथ घृणा का जहाँ द्वन्द्व हो जारी; ऊपर शान्ति, तलातल में हो छिटक...

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5   जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में, कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही। किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं, पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था? हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये, पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को, जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था। और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का, (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था) और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया; सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह, जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के? कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही; जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती, जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर। त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर, त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं; याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं; या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का, जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर ग्लानिमय जीवन बहुत अच्...

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 4

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 4   किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे; युद्ध में मारे हुओं के सामने पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे! और भी थे भाव उनके हृदय में, स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के; खींच कर जिसने उन्हें आगे किया, हेतु उस आवेश का था और भी। युद्ध का उन्माद संक्रमशील है, एक चिनगारी कहीं जागी अगर, तुरत बह उठते पवन उनचास हैं, दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से। और तब रहता कहाँ अवकाश है तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का? युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को। युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से दीप्त हो अभिमान उठता बोल है; चाहता नस तोड़कर बहना लहू, आ स्वयं तलवार जाती हाथ में। रुग्ण होना चाहता कोई नहीं, रोग लेकिन आ गया जब पास हो, तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या? शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से। है मृषा तेरे हृदय की जल्पना, युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है; क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं, जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो। सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा, 'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना, मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में भिन्न ह...