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जो बीत गयी सो बात गयी ( Jo beet gayi so baat gayi)

जो बीत गई सो बात गयी| हरिवंश राय बच्चन जो  बीत गई सो बात गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुम थे उसपर नित्य निछावर तुम वह सूख गया तो सूख गया मधुवन की छाती को देखो सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में मधु का प्याला था तुमने तन मन दे डाला था वह टूट गया तो टूट गया मदिरालय का आँगन देखो कितने प्याले हिल जाते हैं गिर मिट्टी में मिल जाते हैं जो गिरते हैं कब उठतें हैं पर बोलो टूटे प्यालों पर कब मदिरालय पछताता है जो बीत गई सो बात गई मृदु मिटटी के हैं बने हुए मधु घट फूटा ही करते हैं लघु जीवन लेकर आए हैं प्याले टूटा ही करते हैं फिर भी मदिरालय के अन्दर  मधु के घट हैं मधु प्याले हैं जो मादकता के मारे हैं वे मधु लूटा ही करते हैं वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट प्यालों पर जो ...

कृष्ण की चेतावनी ( krishna ki chetavni )

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कृष्ण की चेतावनी। रामधारी सिंह दिनकर यह कविता दिनकर जी की अमूल्य रचना रश्मिरथी से ली गयी है। वर्षों  तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर। सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें, आगे क्या होता है। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। ‘दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका, उल्टे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- ‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। ‘उदयाचल मेरा दीप्...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग

तृतीय सर्ग कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 1 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4 कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 5

कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग

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कुरुक्षेत्र | प्रथम सर्ग

  प्रथम सर्ग   कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 1  कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 5

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 5 भूल रहे हो धर्मराज तुम अभी हिन्स्त्र भूतल है. खड़ा चतुर्दिक अहंकार है, खड़ा चतुर्दिक छल है. मैं भी हूँ सोचता जगत से कैसे मिटे जिघान्सा, किस प्रकार धरती पर फैले करुणा, प्रेम, अहिंसा. जिए मनुज किस भाँति परस्पर होकर भाई भाई, कैसे रुके प्रदाह क्रोध का? कैसे रुके लड़ाई? धरती हो साम्राज्य स्नेह का, जीवन स्निग्ध, सरल हो. मनुज प्रकृति से विदा सदा को दाहक द्वेष गरल हो. बहे प्रेम की धार, मनुज को वह अनवरत भिगोए, एक दूसरे के उर में, नर बीज प्रेम के बोए. किंतु, हाय, आधे पथ तक ही, पहुँच सका यह जग है, अभी शांति का स्वप्न दूर नभ में करता जग-मग है. भूले भटके ही धरती पर वह आदर्श उतरता. किसी युधिष्ठिर के प्राणों में ही स्वरूप है धरता. किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से बार-बार टकरा कर, रुद्ध मनुज के मनोद्देश के लौह-द्वार को पा कर. घृणा, कलह, विद्वेष विविध तापों से आकुल हो कर, हो जाता उड्डीन, एक दो का ही हृदय भिगो कर. क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन अगणित अभी यहाँ हैं, बढ़े शांति की लता, कहो वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं? शांति-बीन बजती है, तब तक नहीं सुनिश्चित सुर में. सुर की शुद्ध प्र...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4   जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं, जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का. शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा, चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का. जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं, ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका. जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है, बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का. उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या, करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है. करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे, ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है? सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव, जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है. करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर, क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है. प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त, प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है. छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही, जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है. चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर जिसके निषग में, करों में धृड चाप है. जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर, हारी हुई जाति की सहिष्णुताSभिशाप है. सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो, उठता कराल हो फणीश फुफकर है. सुनता गजेंद्र ...

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3

कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 3 न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिलें, तो लड़ के, तेजस्वी छीनते समर को जीत, या कि खुद मरके। किसने कहा, पाप है समुचित सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ? उठा न्याय क खड्ग समर में अभय मारना-मरना ? क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई, धर्मराज, व्यंजित करते तुम मानव की कदराई। हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है ? देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है। मनःशक्ति प्यारी थी तुमको यदि पौरुष ज्वलन से, लोभ किया क्यों भरत-राज्य का? फिर आये क्यों वन से? पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी, केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा; पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ? तीन दिवस तक पन्थ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे, बैठे पढते रहे छन्द अनुनय...