कैकेई का अनुताप / मैथिलीशरण गुप्त
तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी। हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”। सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना। “हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी? मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी? पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा, रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा? तनु तड़प-तड़पकर तत्प तात ने त्यागा, क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा? हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा, निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा। अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका? संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका। मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा, हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?” प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा, रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा “उसके आशय की थाह मिलेगी किसको? जनकर जननी ही जान न पाई जिसको?” “यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।” चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को। सबने रानी की ओर अचा...
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