चेतक की वीरता | श्यामनारायण पांडेय





निर्बल बकरो से बाघ लड़े
भिड़ गये सिंह मृग छौनों से

घोड़े गिर पड़े, गिरे हाथी
पैदल बिछ गये बिछौनों से



हाथी से हाथी जूझ पड़े
भिड़ गये सवार सवारों से
घोड़े पर घोड़े टूट पड़े
तलवार लड़ी तलवारों से



हय रुण्ड गिरे, गज मुण्ड गिरे
कट कट अवनी पर शुण्ड गिरे
लड़ते लड़ते अरि झुण्ड गिरे
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे



मेवाड़­-केसरी देख रहा
केवल रण का न तमाशा था
वह दौड़ दौड़ करता था रण
वह मान­रक्त का प्यासा था



चढ़ कर चेतका पर घूम घूम
करता सेना­रखवाली था
ले महा मृत्यु को साथ­साथ
मानो साक्षात कपाली था



रण­-बीच चौकड़ी भर भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा को पाला था



गिरता न कभी चेतक­तन पर
राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरि­मस्तक पर
या आसमान पर घोड़ा था



जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था



कौशल दिखलाया चालों में
उड़ गया भयानक भालों में
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौड़ा करवालों में



है यहीं रहा, अब यहां नहीं
वह वहीं रहा, अब वहां नहीं
थी जगह न कोई जहां नहीं
किस अरि­-मस्तक पर कहां नहीं



बढ़ते नद­-सा वह लहर गया
वह गया गया, फिर ठहर गया
विकराल वज्र­-मय बादल सा
अरि की सेना पर घहर गया



चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल पानी को
राणा प्रताप सिर काट काट
करता था सफल जवानी को



कल कल बहती थी रण गंगा
अरिदल को डूब नहाने को
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को



वैरी दल को ललकार गिरी
वह नागन सी फुफकार गिरी
था शोर मौत से बचो बचो
तलवार गिरी, तलवार गिरी



पैदल से हय दल, गज दल में
छिप छप करती वह विकल गई
क्षण कहां गई कुछ पता न फिर
देखो चम चम वह निकल गई



क्षण इधर गई, क्षण उधर गई
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई
था प्रलय चमकती जिधर गई
क्षण शोर हो गया किधर गई



क्या अजब विषैली नागिन थी
जिसके डसने में लहर नहीं
उतरी तन से मिट गये वीर
फैला शरीर में जहर नहीं



थी छुरी कहीं, तलवार कहीं
वह बरछी असि करधार कहीं
वह आग कहीं, अंगार कहीं
बिजली थी कहीं, कटार कहीं



लहराती थी सिर काट काट
बल खाती थी भू पाट पाट
बिखराती अवयव बाट बाट
तनती थी लोहू चाट चाट



सेना नायक राणा के भी
रण देख देख कर चाह भरे
मेवाड़ सिपाही लड़ते थे
दूने तिगुने उत्साह भरे



क्षण भर में गिरते रुण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से
घोडों के विकल वितुण्डों से
पट गई भूमि नर मुण्डों से



ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं



कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्तस्नान कहां
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां



भाला कहता था मान कहां
घोड़ा कहता था मान कहां
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां



लड़ता अकबर सुल्तान कहां
वह कुल कलंक है मान कहां
राणा कहता था बार बार
मैं करूं शत्रु बलिदान कहां



  श्यामनारायण पांडेय

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