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Showing posts from September, 2020

युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं | अज्ञात

रात काली है भयंकर, दूर तक पसरा अँधेरा डस लिया है कृष्ण सर्पों ने, नहीं जीवित सवेरा  है मगर तू सूर्य इतना जान ले बस उग प्रखर सा भोर कर, ललकार के बस   अब समय है, पूर्ण कर जो स्वप्न तूने खुद बुने हैं  युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मृत्यु है निश्चित, अकेला तथ्य है यह  युद्ध में सब ही मरे हैं सत्य है यह  है मगर तू भीष्म इतना जान ले बस मृत्यु तेरी दास है यह मान ले बस  चुभ रहे जो तीर, चुभने दे- ये तूने खुद गिने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! यह जो जीवन है तेरा 'सागर का मंथन' है अनोखा  इसमें निकले रत्न हैं, अमृत है, विष है और धोखा है मगर तू शिव   सा इतना जान ले बस  अमर होकर क्या करेगा, छीनकर विषपान कर बस  कंठ तेरे है हलाहल, कंठ के "स्वर" रुनझुने हैं युद्ध के मैदान तूने खुद चुने हैं ! मानता हूँ तू अकेला है बहुत और थक चुका है पीठ में खंजर गड़े हैं, स्वेद-शोणित बह चुका है  है मगर तू वज्र की तलवार इतना जान ले बस जंग में ही, वज्र का है ज़ंग मिट...

कैकेई का अनुताप / मैथिलीशरण गुप्त

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  तदनन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाए नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह-रहकर करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह-महकर। वह चन्द्रलोक था, कहाँ चाँदनी वैसी, प्रभु बोले गिरा, गम्भीर नीरनिधि जैसी। हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना”। सब सजग हो गए, भंग हुआ ज्यों सपना। “हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी? मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी? पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा, रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा? तनु तड़प-तड़पकर तत्प तात ने त्यागा, क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?  हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा, निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा। अब कौन अभीप्सित और आर्य, वह किसका? संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका। मुझसे मैंने ही आज स्वयं मुँह फेरा, हे आर्य, बता दो तुम्हीं अभीप्सित मेरा?” प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा, रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा “उसके आशय की थाह मिलेगी किसको? जनकर जननी ही जान न पाई जिसको?”  “यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।” चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी-स्वर को। सबने रानी की ओर अचा...

आज लहरों में निमंत्रण / हरिवंश राय बच्चन

 तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता, शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें, इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में, है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - कंपन! तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण! विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है, शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है, इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके-- इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है, क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो? देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन? तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का, बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह, किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का, विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने, त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन। तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निम...

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है | हरिवंशराय बच्चन

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  कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है। हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबर-अवन...

विज्ञान और मनुष्य ( कुरुक्षेत्र से ) | रामधारी सिंह दिनकर

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  यह मनुज , जो ज्ञान का आगार !  यह मनुज , जो सृष्टि का शृंगार ! नाम सुन भूलो नहीं , सोचो विचारो कृत्य ; यह मनुज , संहार सेवी वासना का भृत्य ।  छद्म  इसकी कल्पना , पाषंड इसका ज्ञान , यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम  अपमान ।  व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय , पर , न यह परिचित मनुज का , यह न उसका श्रेय । श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत ; श्रेय मानव की  असीमित मानवों से प्रीत ; एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान  तोड़ दे जो , है वही ज्ञानी , वही विद्वान । और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि -अधीर  तोड़ना अणु ही , न इस व्यवधान का प्राचीर ; वह नहीं मानव ; मनुज से उच्च , लघु या भिन्न  चित्र-प्राणी  है किसी अज्ञात  ग्रह  का छिन्न । स्यात , मंगल या शनिश्चर  लोक का अवदान  अजनबी करता सदा अपने ग्रहों  का ध्यान ।  रसवती भू के मनुज का श्रेय  यह नहीं विज्ञान , विद्या - बुद्धि यह आग्नेय ; विश्व - दाहक , मृत्यु - वाहक , सृष्टि का संताप , भ्रांत पाठ पर अंध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप । भ्रमित प्रज्ञा  का कौतुक यह इन्...

जाहिल के बाने | भवानीप्रसाद मिश्र

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मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े ख़ून सने हैं आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढँग हमारे मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूँ याने!

कोई अर्थ नहीं | अज्ञात

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  नीत जीवन के संघर्षो से  जब टूट चुका हो अन्तर्मन, तब सुख के मिले समन्दर का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।    जब फसल सूख कर जल के बिन      तिनका -तिनका बन गिर जाये,      फिर होने वाली वर्षा का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन यदि दुःख में साथ न दें अपना, फिर सुख में उन सम्बन्धों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।      छोटी-छोटी खुशियों के क्षण      निकले जाते हैं रोज़ जहाँ,      फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।।* मन कटुवाणी से आहत हो    भीतर तक छलनी हो जाये,   फिर बाद कहे प्रिय वचनों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सुख-साधन चाहे जितने हों      पर काया रोगों का घर हो,      फिर उन अगनित सुविधाओं का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

परंपरा | रामधारी सिंह दिनकर

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  परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो लोगों की आस्था के आधार टुट जाते है उखड़े हुए पेड़ो के समान वे अपनी जड़ों से छूट जाते है परम्परा जब लुप्त होती है सभ्यता अकेलेपन के दर्द मे मरती है कलमें लगना जानते हो तो जरुर लगाओ मगर ऐसी कि फलो में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे और ये बात याद रहे परम्परा चीनी नहीं मधु है वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम रामधारी सिंह "दिनकर"