विज्ञान और मनुष्य ( कुरुक्षेत्र से ) | रामधारी सिंह दिनकर




 यह मनुज , जो ज्ञान का आगार ! 

यह मनुज , जो सृष्टि का शृंगार !

नाम सुन भूलो नहीं , सोचो विचारो कृत्य ;
यह मनुज , संहार सेवी वासना का भृत्य । 
छद्म  इसकी कल्पना , पाषंड इसका ज्ञान ,
यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम  अपमान । 

व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय ,

पर , न यह परिचित मनुज का , यह न उसका श्रेय ।
श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत ;
श्रेय मानव की  असीमित मानवों से प्रीत ;
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान 
तोड़ दे जो , है वही ज्ञानी , वही विद्वान ।

और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि -अधीर 
तोड़ना अणु ही , न इस व्यवधान का प्राचीर ;
वह नहीं मानव ; मनुज से उच्च , लघु या भिन्न 
चित्र-प्राणी  है किसी अज्ञात  ग्रह  का छिन्न ।
स्यात , मंगल या शनिश्चर  लोक का अवदान 
अजनबी करता सदा अपने ग्रहों  का ध्यान । 

रसवती भू के मनुज का श्रेय 
यह नहीं विज्ञान , विद्या - बुद्धि यह आग्नेय ;
विश्व - दाहक , मृत्यु - वाहक , सृष्टि का संताप ,
भ्रांत पाठ पर अंध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप ।

भ्रमित प्रज्ञा  का कौतुक यह इन्द्र जाल  विचित्र ,
श्रेय मानव के न आविष्कार  ये अपवित्र ।

सावधान , मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार ,
तो इसे दे फेंक , तज कर मोह , स्मृति के पार ।
हो चुका है सिद्ध , है तू शिशु अभी नादान ;
फूल - काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान । 
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार ;
काट लेगा अंग , तीखी है बड़ी यह धार ।

 

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