दिनकर जी की 5 प्रशिद्ध कविताएँ ( best poems of Ramdhari Singh Dinkar)



राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के सिमरिया ( वर्तमान के बेगूसराय ) में हुआ था।   

जिस वक़्त भारत गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था. आमजन के दिलो से आज़ादी की तमन्ना ख़त्म हो चुकी थी, इस क्रान्तिकारी ने कलम को अपना हथियार बनाया और और अपने क्रान्तिकारी रचनाओं से देशवासिओ के दिलो-दिमाग में आग लगा दी. इनकी कविताएँ वीर रस से परिपूर्ण  तथा आत्मचिन्तन को मजबूर कर देने वाली है

राष्ट्रकवि के जन्म पखवाड़े पर उन्हें सादर स्मरण करते हुए प्रस्तुत है रामधारी सिंह दिनकर की 5 मशहुर कविताए

            1 .कृष्ण की चेतावनी 
                        
                                   यह कविता इनके खंडकाव्य रश्मिरथी से  ली गयी  है :


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उल्टे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!




        2.  कुरुक्षेत्र से

                 यह कविता दिनकर के काव्य कुरुक्षेत्र से ली गयी है. इसमें भीष्म युधिष्ठिर को वीरोपदेश देते है कि...

युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,
एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।

और तब रहता कहाँ अवकाश है
तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?
युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।

युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।

रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।

है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,
युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।

सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'

औ' समर तो और भी अपवाद है,
चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।

है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।

जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।

छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।

बद्ध, विदलित और साधनहीन को
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?

युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।

और जो अनिवार्य है, उसके लिए
खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।


        3.समर शेष है 


   ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो

 किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?


किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध



        4.कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।



        5. परंपरा 

 परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम



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