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आज लहरों में निमंत्रण / हरिवंश राय बच्चन

 तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे, वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता, शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें, इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में, है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - कंपन! तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण! विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है, शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है, इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके-- इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है, क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो? देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन? तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण! जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का, बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह, किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का, विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने, त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन। तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निम...

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है | हरिवंशराय बच्चन

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  कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है। हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबर-अवन...

विज्ञान और मनुष्य ( कुरुक्षेत्र से ) | रामधारी सिंह दिनकर

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  यह मनुज , जो ज्ञान का आगार !  यह मनुज , जो सृष्टि का शृंगार ! नाम सुन भूलो नहीं , सोचो विचारो कृत्य ; यह मनुज , संहार सेवी वासना का भृत्य ।  छद्म  इसकी कल्पना , पाषंड इसका ज्ञान , यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम  अपमान ।  व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय , पर , न यह परिचित मनुज का , यह न उसका श्रेय । श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत ; श्रेय मानव की  असीमित मानवों से प्रीत ; एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान  तोड़ दे जो , है वही ज्ञानी , वही विद्वान । और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि -अधीर  तोड़ना अणु ही , न इस व्यवधान का प्राचीर ; वह नहीं मानव ; मनुज से उच्च , लघु या भिन्न  चित्र-प्राणी  है किसी अज्ञात  ग्रह  का छिन्न । स्यात , मंगल या शनिश्चर  लोक का अवदान  अजनबी करता सदा अपने ग्रहों  का ध्यान ।  रसवती भू के मनुज का श्रेय  यह नहीं विज्ञान , विद्या - बुद्धि यह आग्नेय ; विश्व - दाहक , मृत्यु - वाहक , सृष्टि का संताप , भ्रांत पाठ पर अंध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप । भ्रमित प्रज्ञा  का कौतुक यह इन्...

जाहिल के बाने | भवानीप्रसाद मिश्र

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मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े ख़ून सने हैं आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढँग हमारे मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूँ याने!

कोई अर्थ नहीं | अज्ञात

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  नीत जीवन के संघर्षो से  जब टूट चुका हो अन्तर्मन, तब सुख के मिले समन्दर का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।    जब फसल सूख कर जल के बिन      तिनका -तिनका बन गिर जाये,      फिर होने वाली वर्षा का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन यदि दुःख में साथ न दें अपना, फिर सुख में उन सम्बन्धों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।      छोटी-छोटी खुशियों के क्षण      निकले जाते हैं रोज़ जहाँ,      फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।।* मन कटुवाणी से आहत हो    भीतर तक छलनी हो जाये,   फिर बाद कहे प्रिय वचनों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। सुख-साधन चाहे जितने हों      पर काया रोगों का घर हो,      फिर उन अगनित सुविधाओं का      रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

परंपरा | रामधारी सिंह दिनकर

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  परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो लोगों की आस्था के आधार टुट जाते है उखड़े हुए पेड़ो के समान वे अपनी जड़ों से छूट जाते है परम्परा जब लुप्त होती है सभ्यता अकेलेपन के दर्द मे मरती है कलमें लगना जानते हो तो जरुर लगाओ मगर ऐसी कि फलो में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे और ये बात याद रहे परम्परा चीनी नहीं मधु है वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम रामधारी सिंह "दिनकर"

शक्ति और क्षमा | रामधारी सिंह "दिनकर"

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  क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा? क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो। तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे। उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से। सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में। सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की। सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।

दिनकर जी की 5 प्रशिद्ध कविताएँ ( best poems of Ramdhari Singh Dinkar)

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के सिमरिया ( वर्तमान के बेगूसराय ) में हुआ था।    जिस वक़्त भारत गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था. आमजन के दिलो से आज़ादी की तमन्ना ख़त्म हो चुकी थी, इस क्रान्तिकारी ने कलम को अपना हथियार बनाया और और अपने क्रान्तिकारी रचनाओं से देशवासिओ के दिलो-दिमाग में आग लगा दी. इनकी कविताएँ वीर रस से परिपूर्ण  तथा आत्मचिन्तन को मजबूर कर देने वाली है राष्ट्रकवि के जन्म पखवाड़े पर उन्हें सादर स्मरण करते हुए प्रस्तुत है रामधारी सिंह दिनकर की 5 मशहुर कविताए               1 . कृष्ण की चेतावनी                                                                             यह कविता इनके खंडकाव्य रश्मिरथी से  ली गयी  है : वर्षों  तक वन ...